31 दिसंबर 2010

मंगलमय हो यह नववर्ष !


नया साल आया है फिर से 
                 सबके लिए ये हो आदर्श.
नये साल में सत्य अहिंसा
                  हो सबका जीवन-निष्कर्ष.
भूल जाएँ सब रंजोगम को
                 मिलजुल करें विचार विमर्श.
सुख-समृधि , धान्य-धन बढ़े
                 मधुर बने जीवन संघर्ष.
सुख-चैन रहे सभी दिलों में
                 गाएँ मिल सब गीत सहर्ष.
हे प्रभु! यही विनती हमारी
                  मंगल मय हो यह नव-वर्ष.

13 नवंबर 2010

बेशक, तुम पत्थर नही हो.

बेशक
तुम
पत्थर नही हो.


पर..
तुम्हारे मानस-पटल पर
अंकित
मेरी स्मृति की रेखा
रहेगी सदा-सर्वदा


पत्थर की लकीर की तरह.

16 अक्तूबर 2010

अभिव्यक्ति

किसे नहीं होती 
चाह अभिव्यक्ति की 


बीज विटप बन 
अभिव्यक्त ही तो होता है.
मंजुल  पुष्पों के रूप में 
 डालियों पर
 अपनी अभिव्यक्ति ही तो पिरोता है. 


कोयल की कुहुक में भी तो 
झांकती है उसकी अभिव्यक्ति ही 
यही अभिव्यक्ति है
 उसके जीवन की शक्ति भी.


यही अभिव्यक्ति
नदियों, झरनों का मधुर गान है.
ईश्वर की सृष्टि का 
अनुपम वरदान है.


सो अभिव्यक्त करो तुम भी स्वयं को 
मत रहो उहापोह में,
देखो, जीवन सुरमय है
आरोह में हो या अवरोह में.  





13 अक्तूबर 2010

नवरात्रों के शुभ अवसर पर

नारी
युगों-युगों से हारी
 इस पुरुष समाज से 


देती आयी है परीक्षा 

लगती आयी है दांव पर.


 कभी बना दी गयी शिला.
पुरुष प्रधान समाज में उसे भला क्या मिला? 


इस पर यह कहना 
की नारी तुम केवल श्रध्दा हो 
लगता है एक दुखद उपहास
मर्मान्तक पीड़ा से भरा है यह अहसास
कि स्रष्टा है जो 
जो जननी है


धाए के अतिरिक्त 
कुछ भी  रहने नही दी जाती.
यहाँ तक की अजन्मी कोख की बच्ची को भी 
आहत होने से बचा नही पाती.


युगों से हारी
 यह भारतीय  नारी.


युगों से हारी
 इस भारतीय नारी को 
अपना मानदंड 
अब स्वयं बदलना होगा
सीता,शकुन्तला,पांचाली
 या अहल्या सी सहिष्णुता त्याग 
अब दुर्गा और चंडी के 
कदमों पर चलना होगा 

हाँ! उसे ही यह समाज बदलना होगा


हाँ! उसे ही यह समाज बदलना होगा.

26 सितंबर 2010

आधी दुनिया

आधी दुनिया का पूरा सच
कोई नहीं जानता
और अधिकतर लोग जानना भी नहीं चाहते.

उनकी दिलचस्पी
सीमित रहती है
आधी दुनिया की देह तक ही.

देह से परे
तन के भीतर
 छिपे  सुशुप्त मन से
उन्हें नहीं रहता कोई  सरोकार.

नहीं जानना चाहते वे
काया के भीतर की माया,
तन के भीतर का मन.

निश्चेष्ट रहा जो सदियों तक
वह  अब जगना चाहता है,
निकलना चाहता है
इस निद्रा से
गुलामी की मोह भरी तन्द्रा से

वह अब जागृत हो
 कुछ कर दिखाना चाहता है.

रूढ़िओं-परम्पराओं
और संस्कारों के संकीरण वृतों से
बाहर आना चाहता है.

और इसके लिए
स्वयं उसे ही
करना होगा प्रयास
क्योंकि कुछ भी नहीं होता अनायास

जब तक
अपने भीतर  के बल से
अपनी शक्ति के सत्य से
 वह  स्वयं रहेगी अनजान
तब तक हाँ तब तक
नहीं मिल पायेगी
आधी दुनिया को उसकी पूरी पहचान.

14 सितंबर 2010

अभिशप्त

पढ़ी-लिखी हो या अनपढ़ ,
 कामकाजी हो या घरेलू
सुबह सवेरे,मुंह-अँधेरे 
घरभर के जगने से पहले जग जाती है .
बिना थके,बिना रुके मशीन बन ढेरों कामनिपटती है.
रात को थकी-मांदी हांफती,
गिरती, ढहती कांपती 
आख़िरकार   पीठ लगा चारपाई पर 
देर रात गए वह सोती है 
क्योंकि  
                                             अभिशप्त है वह 
                                            भारतीय नारी है .
                                          नारी होने का अभिशाप 
                                               उम्र भर ढोती है.