11 मई 2017

कविता

ओ मेरे छलिया!

तुम से मिलना
कोई संयोग नहीं था।

तुम धीरे धीरे से
होले होले से
कदम बढ़ाते गए।
मेरी जिन्दगी में आते गए।।

दिलोदिमाग पर
करते गए घर।
और मैं....
दुनिया से बेखबर

तुम्हारे खाबों की बदलियों में
भीगती गयी, होती रही सराबोर।
एक अदृश्य डोर...
बांधती रही मुझे बरबस
खींचती रही तुम्हारी ओर।।

मुझे लगा था,
मेरे साथ तुम भी
इस बन्धन में बंध चुके हो।

तभी तो यूँ मेरी ओर
इस तरह झुके हो।।

पर न जानती थी मैं
एक चतुर आखेटक हो तुम।
और मैं..
तुम्हारे बिछाये स्नेह-पाश में गुम

अकेली रह जाऊँगी।
तलाशती तुम्हें..
अपने आसपास ।

तुम्हारी मीठी बातें
और दिल चुरा लेने वाली
वंशी की तान
हो जाएगी,
बीते समय की बात।

अब न होगी
तुमसे
वो पहले सी मुलाकात।।

अब
नहीं डालेगी उहापोह में
वो स्नेह भरी पुकार,
अब नही करेगी विचलित
तेरी वंशी की गुहार।।

एक मोहक छलावे में
छला गया
यह बावरा मन
धीरे धीरे बहल तो जायेगा।

पर फिर से
किसी अजनबी के लिए
अपने मन-मंदिर के द्वार
खोल नहीं पायेगा।
बस सोचता रहा जाएगा।

मेरे कान्हा!
बस सोचता ही रह जायेगा।।